Sunday, July 16, 2017

कहानी एक चिड़ियाँ की

तिनका -तिनका जोड़ -जोड़ कर ,
बना सुघड़ सुन्दर इक घर  ,
फुदक रही इसमें इक चिड़ियाँ  ,           
 फैलाकर के अपना पर   ,

अभी-अभी आई दुनियां में,
इसे कहाँ इस जग की खबर,         
छुप गया सूरज हुआ अँधेरा ,
लगने लगा चिड़ियाँ को डर  ,

लिपट गई वो माँ से जाके  ,  
बड़े - बड़े पर के अन्दर ,
नींद बहुत फिर आई उसको ,
उठी तभी जब हुआ सहर ,
  
धीरे -धीरे गुजर गया पल ,
बढ़ने लगे चिड़ियाँ के पर ,
लगी हौसला देने माँ फिर,
आजा पास मेरे उड़कर ,

माँ सिखलाती उड़ने के गुण ,
चिड़ियाँ का मन इधर-उधर  ,
मन के अन्दर मची खलबली , 
इकटक देख रही अम्बर ,

माँ ने हाँथ पकड़ के उड़ाया ,
मिला उसे सपनों का सफर ,
आया जोश चिड़ियाँ को इतना ,
उड़ने लगी स्वच्छंद होकर  ,

खो गई वो अपनी ही धुन में , 
ऊपर -ऊपर और ऊपर ,
अनसुनी करती ही जाती , 
माँ का कहना भी सुनकर ,

तभी अचानक उसने देखा , 
खड़ा पेड़ आगे आकर ,
याद न आया बचने का गुर , 
उलझी टहनी में जाकर ,

लगा एक पल मौत आ गई , 
इतने जख्म हुए तन पर ,
अटक-लटक के टहनी-टहनी ,
गिरी जमीं पर फिर आकर ,

खुली आँख तब उसने देखा ,
सहला रही माँ उसके पर ,
जगह -जगह से टूट चुके थे , 
उसके सुन्दर कोमल पर ,

देती ढाढस चिड़ियाँ को माँ , 
तरह - तरह से समझाकर ,
दुःख से चिड़ियाँ फिर भी व्याकुल ,
आंसू गिरते झर - झर कर ,

अब शायद वो उड़ न सकेगी , 
उग न सकेंगे टूटे पर ,
हो कैसे निर्वाह ये जीवन ,
खड़ी समस्या है आकर ,

धीरे-धीरे घाव भर गए ,
लौटे कई मौसम आकर , 
लेकिन मन के घाव मिटे ना ,
लौटी ना खुशियाँ जाकर ,

पड़ी घोंसले में गुमसुम सी , 
तकती चिड़ियाँ बस अम्बर ,
हारी माँ समझाकर उसको ,
सिमटी वो खुद में छुपकर ,

इक दिन माँ गई दाना चुगने ,
साँझ ढला ना आई घर ,
भूखी प्यासी बाट जोहती , 
तडपे चिड़ियाँ रह-रह कर ,

इसी आस में कई दिन बीतें , 
आएगी माँ अन्न लेकर ,
लेकिन माँ वापस ना लौटी ,
रोई वो माँ - माँ करकर ,

अब तो भूखा रहा न जाए , 
 जाना होगा खुद उड़कर ,
 इस डाली से उस डाली पर,
 जाए कैसे लगता डर ,

 याद किये फिर माँ की बाते ,
 कैसे हिलाए जाते पर ,
 अब चाहत बस दाने की थी ,
नहीं लुभाता था अम्बर ,

धीरे -धीरे सरक-सरक के ,
चढ़ी वो डाली के ऊपर ,
साहस करके पर फैलाया , 
उडी विश्वास मन में भर कर , 

खुद को उड़ता देख - देख के ,
आता हौशला बढ़ -बढ़ कर ,
तरह-तरह के फल और पौधे , 
पास बुलाते ललचा कर ,

कई दाने फिर वो चुग लाई ,
खाया चिड़ियाँ ने जी भर ,
फिर से उड़ना सीखी चिड़ियाँ ,                                   
अपने साहस के दम पर ,

उसे हुआ एहसास की जीवन  ,
होता है कितना सुन्दर ,
संभल-संभल के चलने का गुण ,
सिखा जाता है गिरकर || 

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