Thursday, March 27, 2014

वो प्यार को खेल समझती थी

जिस ओर कदम हम रखते थे उस ओर मुहब्ब्त चलती थी ,
मेरे साथ मुहब्ब्त चलती थी इस बात से दुनियाँ जलती थी ।

मेरे सपनों में वो ही थी उसके सपनों में और कोई ,
वो मेरी गली से होकर के किसी और से जाकर मिलती थी ।

जी भर न कली को देख सके पतझड़ का मौसम आ पहुँचा ,
इस कदर बेसबर थी मौसम इक पल में रंग बदलती थी ।

मुझको खुशबू कि आदत थी मैं भंवरे से कुछ कम न था ,
पर एक कली वो ऐसी थी जो भंवरे रोज पकड़ती थी ।

उस कली में लाखों खूबी थी हर एक तरीका सुंदर था  ,
पर उसे वफ़ा कि समझ न थी वो प्यार को खेल समझती थी ।

2 comments:

  1. मेरे सपनों में वो ही थी उसके सपनों में और कोई ,
    वो मेरी गली से होकर के किसी और से जाकर मिलती थी ..
    बहुत उम्दा ... लाजवाब श्वेर है इस गज़ल का .. क्या कहने ...

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  2. बहुत - बहुत आभार Digamber Naswa ji

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