Tuesday, November 5, 2013

जागता ' दीया '

क्यूँ इंसान ये अक्सर ख़ुशी में भूल जाता है ।
कोई गम में होता है और कोई मुस्कुराता है ।।

न जाने कौन सी खता कि 'दिये' ने यारों ,
जिस देखो वही 'दिये' को ही जलाता है ।

कभी जिस दिन को कोसते थे जी भर के हम ,
अब वही बीत गया खूब याद आता है ।

तुम्हे क्या लगता है बेगैरत हो गये हैं सब ,,
क्यूँ जान लेके भी कोई काम नही आता है ।

तुमसे माँगा था क्या कन्धा तुम्हारा रोने को ,,
किसी के गम पे भला कोई ऐसे मुस्कुराता है ।

मुझे लगता है त्योहारों पे तो खुश हो लूँ मगर ,
गम कि आदत पड़ी खुशियों से जी घबराता है ।

किसी किताब में लिखा था बुरा मत कीजे ,,
मैं बुरा अपना करूं क्या किसी का जाता है ।

मैंने सब कह दिया मेरा तो जी हलका हुआ ,,
तू गम छुपा - छुपा के अपना दिल जलाता है।

मैंने देखा है रातभर को जागता है दीया
और वो जब जागता है कितनों को सुलाता है । 

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