Saturday, March 30, 2013

चाहतें

इन्सान की चाहत है की ,उड़ने को पर मिले ।
और पंक्षी सोंचते हैं की , रहने को घर मिले ।

रस्ते में पड़े हैं जो , हैं मंजिल की चाह में ,
मुकम्मल हुए तो सोंचें , फिर से सफर मिले ।

बचपन में चाहत थी की , जल्दी से जवां हों ,
जवानी में फिर चाहत हुई , कच्ची उमर मिले । 

मिले न थे तो चाह थी , बस दूर से दिखें ,
दिखते ही फिर हसरत हुई , उनसे नजर मिले ।

हो जायेंगे इक दिन वो , हमारे खिलाफ भी ,
हमसे कोई अच्छा उन्हें , जो हमसफर मिले । 

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