Sunday, November 25, 2012

रूठी रही कई रोज तक मुझसे मेरी कलम

रूठी रही कई रोज तक , मुझसे मेरी कलम ,
कहने लगी कुछ भी हो वो नफरत न लिखेगी ।  

अरमान ,  मुस्कान ,  दो  जहान  लिखेगी ,
दुनियां की झूठी शानों - सौकत न लिखेगी ।

काँटों की तरह चुभके जो दामन खरोच दे ,
बिगड़ी हुई वो बाप की दौलत न लिखेगी ।

सुकून जो देते हैं  , फसाने  ही  दिलों  को ,
तो बेचैन करने वाली हकीकत न लिखेगी ।

वो बीमार है  , उसको  दवाई  तो  दे  कोई ,
मुकरती हुई दुनियां की ये आदत न लिखेगी ।

हँसते हैं वो दुनिया पे , बस घरों में बैठके ,
मतलबपरस्त , ऐसी शराफत न लिखेगी ।

हालात  से  हारे  हुए  ,  खंडहर  के  वास्ते  ,
मलबों में सिसकती सी , इमारत न लिखेगी ।

वो जितना गिरा , एकदिन उतना ही उठेगा ,
उसके लिए जिल्लत भड़ी किस्मत न लिखेगी ।

तूनें ख़ुदा  ,  हाथों को जो बख्सी है ये नेमत ,
वादा है , कलम मेरी ,  बनावट न लिखेगी ।

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